Friday, November 12, 2010

" रोये हैं बुहत "

रोये  हैं  बहुत  तब  ज़रा  करार  मिला  है
इस  जहाँ  में  किसे  भला  साचा  प्यार  मिला  है
गुज़र  रही  है  ज़िन्दगी  इम्तेहान  की  दौर  से
एक  ख़तम  हुआ  तो  दूसरा  तैयार  मिला  है
मेरे  दामान  को  खुशियों  का  नहीं  मलाल
ग़म  का  खज़ाना  जो  इसको  बेशुमार  मिला  है
वो  कमनसीब  हैं  जिन्हें  महबूब  मिल  गया
मैं  खुशनसीब  हु  मुझे  इंतज़ार  मिल  गया
ग़म  नहीं  मुझे  की  दुश्मन  हुआ  यह  ज़माना
जब  दोस्त  हाथो में  लिए  तलवार  मिला  है
सब  कुछ  खुदा  ने  तुम  को  भला  कैसे दे  दिया
मुझे  तो  उसके  दर  से  सिर्फ  इनकार  ही  मिला  है

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